जनहित से
संबंधित जो काम हमारी देश की संसद को करना चाहिए आजकल वह न्यायपालिका कर
रही है. उच्चतम न्यायालय ने एक बेहद अहम फैसले में देश के मतदाताओं को यह
अधिकार दे दिया है कि वे अब मतदान के दौरान सभी उम्मीदवारों को ठुकरा
सकेंगे. इस अधिकार को “राइट टू रिजेक्ट” के नाम से जाना जाता है.
क्या है “राइट टू रिजेक्ट”
जब हम
पोलिंग बूथ पर वोट डालने जाते हैं तो कई बार हमें कोई भी उम्मीदवार पसंद
नहीं होता, कोई भी पार्टी पसंद नहीं होती, फिर भी हमें मजबूरन किसी न किसी
उम्मीदवार को वोट डालना पड़ता है. अब उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद
वोटिंग मशीन में एक ‘नापसंदी’ का बटन लगाया जाएगा. यदि आपको कोई उम्मीदवार
पसंद नहीं है तो आप इस बटन को दबा सकेंगे. यदि इस बटन को बहुमत मिलता है तो
वहां पर चुनाव रद्द किए जाएंगे और एक महीने में दुबारा चुनाव कराए जाएंगे.
जिन उम्मीदवारों को सबसे ज्यादा जनता ने नकारा है (50 फीसदी से ज्यादा वोट
पड़े हैं) उन्हें दूसरे चुनाव में खड़े होने की इजाजत नहीं होगी.
सामाजिक संगठनों की मांग
सामाजिक
कार्यकर्ता अन्ना हजारे और आम आदमी पार्टी की हमेशा से ही मांग रही है कि
“राइट टू रिजेक्ट” को कानून के रूप में लाया जाए. इस संबंध में चुनाव आयोग
ने भी बहुत पहले सरकार को सुझाव दिए थे लेकिन कुछ हो न सका. वहीं दूसरी तरफ
केंद्र सरकार और अन्य दूसरी पार्टियां इस कानून का विरोध करती आ रही हैं.
उनके मुताबिक चुनाव किसी को चुनने के लिए होता है न कि रिजेक्ट करने लिए.
इसके अलावा वह यह भी कहते हैं कि “राइट टू रिजेक्ट” से मतदाताओं में भ्रम
पैदा होगा.
सदस्यता रद्द करने का फैसला
ऐसे ही एक
कवायद में कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में दागी
सांसदों और विधायकों को जोरदार झटका देते हुए कहा था कि अगर सांसदों और
विधायकों को किसी आपराधिक मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद दो साल से
ज्यादा की सजा हुई, तो ऐसे में उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से रद्द हो
जाएगी. लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने के लिए
केंद्र सरकार अध्यादेश लेकर आई है. ऐसे में यह उम्मीद की जा रही है कि
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस अहम फैसले पर सभी पार्टियां कोई न कोई तोड़
जरूर निकाल लेंगी.
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